Saturday 7 March 2015

अखबारों का पेशेवर होना समाज के लिए घातक

आज अखबार इस तरह से पेशेवर हो गए हैं कि समाज के लिए घातक बनते जा रहे हैं। मीडिया में पिछले ढाई दशक से होने के बावजूद मुझे यह लिखने में कत्तई संकोच नहीं कि बड़े-बड़े अखबार चंद सिक्कों की खातिर देश और समाज के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसा आज लिखना पड़ रहा है तो इसके पीछे बहुत बड़ा कारण है। 


हमारे एक मित्र ने फेसबुक पर देश के एक प्रतिष्ठित अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन की तरफ ध्यान दिलाया है। विज्ञापन, अपने आफिस के लिए महिला कर्मी रखने के सम्बंध में है। विज्ञापन में लिखा गया कि ऐसी लड़की चाहिए, जो कभी भी, कहीं भी साथ चलने के लिए तैयार रहे। माह में 5-6 दिन बाहर रहना अनिवार्य है। वेतन 12 हजार देने का विज्ञापन में उल्लेख है।
इस विज्ञापन का क्या मतलब है, बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे विज्ञापन ही नहीं, बल्कि सीधे तौर पर सेक्स के ऑफर वाले विज्ञापन भी आज बड़े-बड़े अखबारों में प्रकाशित होना आम बात है। घटिया दर्जे के तरह-तरह के विज्ञापन इतनी ज्यादा संख्या में अखबारों में प्रकाशित हो रहे हैं, जिनकी कोई सीमा नहीं दिखती है। ऐसे विज्ञापनों का रेट इतना ज्यादा होता है कि अखबार वाले मना ही नहीं कर पाते हैं। यही नहीं इन विज्ञापनों के लिए एक अलग तरह का स्थान तय रहता है। ये विज्ञापन पेज पर बड़े विज्ञापनों के ऊपर लगाए जाते हैं। जिस तरह से ऐसा हो रहा है, उसके परिणाम को अखबार वाले समझ नहीं पा रहे हैं। संभव है कि इन छोटे-छोटे लेकिन ज्यादा पैसा देने वाले विज्ञापनों के चक्कर में एक दिन अखबार वाले अपने बड़े विज्ञापन दाताओं से हाथ धो बैठे।
संभव है कि एक न एक दिन बड़े विज्ञापन दाताओं को यह बात जरूर समझ आएगी कि ऐसे घाटिया विज्ञापनों के कारण अब लोग अखबारों से मुंह मोडऩे लगे हैं। तब ऐसे अखबारों में विज्ञापन देने से बड़े विज्ञापनदाता हाथ खींच लेंगे। यह तो एक अलग बात है। सवाल उठता है कि क्या अखबारों ने आज पूरी तरह से समाज और देश के सरोकार से नाता तोड़ लिया है। हमें तो लगता है कि ऐसा ही है। भले बड़े-बड़े अखबार बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन हकीकत जुदा है। अखबारों ने वास्तव में चंद सिक्कों की खातिर अपना जमीर पूरी तरह से बेच दिया है।  
(राजकुमार ग्वालानी )
http://www.bhadas4media.com/article-comment/3889-akhabaro-ka-peshevar-hona-ghatak